Symposium

BrAhma muhUrtaM

ब्राह्म मुहूर्तम्

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प्रति (प्र उपसर्ग, तिङ् प्रत्यय) और प्रातः पर्याय हैं। 

प्रति प्रातः सूर्योदय से पूर्व, रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्राह्म मुहूर्त कहते हैं। पतञ्जलिकृत योगदर्शन में :

प्रातिभाद्वा सर्वम् 

का उल्लेख है। 

यह प्रातिभ ब्रह्म मुहूर्त में अनायास ही विद्यमान होता है। जहाँ तक काल की गति है, उस कल्पित अतीत समय से ऋषि मुनि आदि इसी ब्राह्म मुहूर्त में निद्रा से जागते ही शौच स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर अध्यात्म के अनुसंधान में प्रवृत्त हो जाया करते हैं। सूर्य के उदय तक यह क्रम संपन्न हो जाता है और सूर्योदय के पश्चात् संसार के दैनिक कर्मों का अनुष्ठान प्रारंभ हो जाता है। अपने अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम में स्थित छात्र आचार्यकुल की सेवा करते हुए प्राप्त हुए कर्तव्यों का अनुष्ठान करते हैं। यह उनका शिक्षाकाल होता है जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम भी कहा समझा जाता है। जिन्होंने इस आश्रम में समुचित शिक्षा प्राप्त कर ली है, उन्हें गृहस्थ आश्रम प्राप्त हो जाता है। तब उनका कर्तव्य होता है कि प्राप्त हुए आश्रमधर्म का निर्वाह कर सुयोग्य संतति की उत्पत्ति करें और केवल इसी उद्देश्य से काम का उपभोग करें। काम मनोरंजन-मात्र नहीं यज्ञकर्म है। मनोरंजन के हेतु से किया जानेवाला कामोपभोग मनुष्य के अधःपतन का कारण बनता है। 

कामविषयक शृङ्गार रस का साहित्य और कला के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ में कहा गया है :

यामिमां पुष्पितावाचा प्रवदन्त्यविपश्चितः।। 

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिंप्रतिम्।।४३।।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

काम चार पुरुषार्थों में से तृतीय है। 

ये चार पुरुषार्थ क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। 

प्राणिमात्र को प्रकृति से ही इस क्रम से अनायास ही चार आश्रम प्राप्त होते हैं। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्यधर्म-पालन के लिए, द्वितीय अर्थोपार्जन और संतति की उत्पत्ति के क्रम को बनाए रखने के लिए, तृतीय वानप्रस्थ, संसार से निवृत्त होकर विवेक और वैराग्य की सिद्धि के लिए और चतुर्थ संन्यास आश्रम मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रकृति से ही निर्धारित है। प्रकृति के द्वारा निर्धारित इस क्रम का उल्लंघन करना ही अधर्म है।

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